...सरों पे ओढ़ के मजदूर धूप की चादर,
ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे
...मजदूरों को क्या हासिल हुआ?
...मजदूरों को मजबूर नहीं मजबूत बनाएं
...मजदूरों के साथ इससे भद्दा मजाक भला और क्या हो सकता है
...महामारी का अंत नहीं दिखता हैं
प्रवासी मजदूरों पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में काँग्रेस और सरकार के बीच खूब राजनीति देखने को मिली। कौन सच है कौन झूठ यह तो वहीं जाने। लेकिन मजदूरों को क्या हासिल हुआ? शायद इसका जवाब न तो सरकार के पास है और न काँग्रेस के पास। यह वक्त राजनीति का नहीं है। मजदूरों को सुरक्षित पहुँचा सरकार, विपक्ष और समाज सब की नैतिक जिम्मेदारी और जवाबदेही है। देश के निर्माण में मेहनतकश श्रमिकों के योगदान को भुलाना नाइंसाफी होगी। जब वह हमारे साथ होंगे तभी देश की बुनियाद मजबूत बनेगी। उन्हें मजबूर नहीं मजबूत बनाएं। मजदूरों को लेकर हमारी चुनौतियां बढ़ रहीं हैं। वक्त रहते अगर हमने $कदम नहीं उठाए तो प्रवासी मजदूरों के हालात और बदतर होंगे। हमें पूरी म$जबूती के साथ उनके साथ खड़े होना होगा। अगर उनका भरोसा टूट जाएगा तो हम बेहतर राष्ट्र निर्माण की बात नहीं कर सकते हैं। मजदूरों को म$जबूर नहीं मगरूर समझिए। सरकारें जब राजनीति में उलझी रहीं तो इन्होंने अपना बोझ खुद लिया। क्योंकि शायर राही शहाबी ने सच लिखा है कि 'हम हैं म$जदूर हमें कौन सहारा देगा। हम तो मिट कर भी सहारा नहीं माँगा करते।
भारत में प्रवासी मजदूरों का पलायन थमने का नाम नहीँ ले रहा है। कोरोना काल में रोजगार छिन जाने से इस वक्त सबसे अधिक मजदूरों के सामने भूख का संकट खड़ा हो गया है। जिसकी वजह से मजदूर शहरों से पलायन कर रहें हैं। उनके पास कोई रोजगार नहीं रह गया है। धंधे बंद हो गए हैं। कमरे का किराया देने के लिए पैसा भी नहीं है। लोगों में इतना भय और डर समा गया है कि अब जीवन बचना मुश्किल है। जिसकी वजह से लोग शहरों से अपने गांव की तर$फ लौट रहें हैं। गांव सबसे सुरक्षित ठिकाना लगने लगा है। क्योंकि इस वक्त हर व्यक्ति के सामने जीवन बचाने की चुनौती है।
सरों पे ओढ़ के मजदूर धूप की चादर। खुद अपने सर पे उसे साएबां समझने लगे। शारिब मौरान्वी का यह शेर अपने आप में मजदूरों की दुर्दशा को खुदबखुद बया करता है। लेकिन हम हैं कि उनकी पीड़ा पर आँसुओं को पोंछने की आड़ में राजनीति करते हैं। राजनीति ने मजदूरों को म$जबूर और तमाशाई बना दिया है। कोरोना सम्भवत: सृष्टि की सबसे बड़ी महामारी है। संक्रमण की वजह से अब तक लाखों लोग अपना बहुमूल्य जीवन खो चुके हैं। लेकिन हम इस विपदा में भी राजनीति का अवसर खोज रहें हैं। उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूरों पर कांग्रेस और राज्य की योगी सरकार के बीच किस तरह की राजनीति दिखी वह बेहद शर्मनाक है। मजदूरों के साथ इससे भद्दा मजाक भला और क्या हो सकता है। संक्रमण को लेकर हालात इतने बुरे हैं कि महाशक्तियों ने भी घुटने टेक दिए हैं। अभी तक कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं हो पाई है और हम राजनीति पर उतारू हैं। यह मतभेद के बजाय एकला चलो का समय है। सरकारों और मानवीयता के लिए परीक्षा की घड़ी है।
जब विश्व स्वस्थ्य संगठन ने साफ कर दिया है कि इस महामारी का अंत नहीं दिखता हैं। इसका मतलब हुआ कि हमें अपनी सुरक्षा के साथ जीना होगा। यह लड़ाई इतनी जल्दी खत्म होने वाली नहीं है। भारत में यह महामारी तेजी से पाँव पसार रही है। चौथा लॉकडाउन भी घोषित कर दिया गया है लेकिन उसका कोई प्रभाव $िफलहाल नहीँ दिख रहा है। भारत में एक लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं। तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। हजारों की संख्या में कोरोना वारियर भी संक्रमण के शिकार हो चले हैं। कई डाक्टरों और पुलिसवालों की मौत हो गई है। प्रवासी मजदूरों की हालत किसी से छुपी नहीँ है। लेकिन अब उस पर राजनीति हो रही है। मजदूरों को घर भेजने को लेकर सरकारें किस हद तक जा सकती हैं उसका उदाहरण हम पश्चिम बंगाल, बिहार और यूपी में देख रहे हैं।
आॢथक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र मुम्बई, सूरत, दिल्ली, पंजाब, तेलंगाना, कोलकाता, गुडग़ांव , चेन्नई समेत दूसरे राज्यों में उद्योग- धंधे बंद हैं। सरकारें मजदूरों से अपील कर रहीं हैं कि वह शहर न छोड़े, लेकिन कोरोना का फैलता संक्रमण और उनमें समाया डर उन्हें पलायन को बाध्य कर रहा है। सरकारें यह बताने में करोड़ों का विज्ञापन खर्च कर दिया कि आप जहां हैं वहीं रहें सरकार आपको घर लाएगी। लेकिन वह कैसे रहें जब उनके पास पैसा, भोजन और दूसरी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
काम- धंधा बंद होने से उनके सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है। $िफर लोग पलायित नहीँ होंगे। हालाँकि सरकारी दुकानों से राशन की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है, लेकिन क्या सिर्फ राशन से भजदगी चल जाएगी। जीवन की दूसरी जरूरतें कैसे पूरी होंगी। इस वक्त प्रवासी मजदूर सबसे अधिक मुश्किल में है। जितनी बड़ी चुनौती मजदूरों के सामने है उतनी समाज के दूसरे तबके के साथ नहीं है। उन्हें सीधे आॢथक सहायता की $जरूरत है।
प्रवासी मजदूर एक से डेढ़ हजार किलोमीटर तक की पैदल यात्रा करने को बाध्य है। दुनिया में में इस तरह की त्रासदी केवल भारत में देखने को मिल रही है। मजदूरों के हौंसले की वजह से सड़कें छोटी पड़ गई हैं। लोग माँ- बाप, पत्नी और बच्चों को कंधे पर ढो रहे हैं। गर्भवती महिलाएं अपने बच्चों को ढोने के लिए बैलगाड़ी खींच रहीं हैं। पिता अपने बच्चों को कंावरी में लेकर लम्बी यात्रा तय कर रहा है। बेटी अपने बीमार पिता को साइकिल बैठा बिहार तक का अंतहीन सफर तय कर रहीं है। म$जबूर म$जदूर खुद हाथ गाड़ी बनाकर सैकडों किमी की यात्राएं नाप रहें हैं। मासूम बच्चे सड़क पर दौड़ती सूटकेस पर गहरी नींद पर सो जा रहें हैं। लोग- भूख और प्यास ने तड़प- तड़प कर दमतोड़ दे रहें हैं। घर आने की जल्दबाजी में अब तक अनगिनत म$जदूर सड़क हादसों में अपनी जान गँवा चुके हैं।