...जबकि दुबई में हिंदी बोलने का दबदबा बना हुआ है
त्रिनाथ कुमार शर्मा
हमारे देश शिक्षा नियंता, नीतियां बनाने, बिगाड़ने वाले जब तक धरातल की इन सच्चाइयों को अपने विश्लेषणों का केंद्रीय आधार नहीं बना लेते, आगे भी हिंदी में लाखों बच्चों के फेल होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में हिंदी भाषा का भविष्य क्या हो सकता है, खुद ही जाना जा सकता है। जबकि दुबई में हिंदी का दबदबा बना हुआ है।
अगर अपनी मातृभाषा, यानी मां के साथ बोलचाल से स्वभावतः सीखी हुई भाषा-विषय में ही आज के दस लाख बोर्ड परीक्षार्थी फेल हो जाएं, फिर हिंदी आंदोलन किसके भरोसे चल सकता है। देश के तमाम संगठन हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सवाल पर तो दिन रात छाती पीटते रहते हैं लेकिन उन संगठनों में शामिल कर्ताधर्ताओं के बच्चे आंखें खोलते ही अंग्रेजियत की घुट्टी पीने लगते हैं।
जब पढ़ाने वाले टीचरों को ही ठीक से हिंदी नहीं आती, कामचलाऊ लोग हिंदी पाठ्यक्रम के लिए किताबें लिख रहे हैं, प्रतिष्ठित कवि साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से दरकिनार कर दिया गया हो, फिर छात्रों का भी क्या दोष, परीक्षा में वे फेल तो होंगे ही। इससे एक बात और जुड़ी हुई है 'जीन' की। हाल ही में ब्रिटेन के जुड़वा बच्चों पर हुए एक रिसर्च से पता चला है कि स्कूल में कौन सा बच्चा तेज़ होगा, कौन औसत से कम, ये बात बच्चे के जीन पर निर्भर करती है। जीन के आधार पर ये भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कोई बच्चा प्राइमरी स्कूल में कैसा परफॉर्म करेगा, किस विषय में उसकी दिलचस्पी ज़्यादा होगी और आगे उसकी पढ़ाई का कैसा हश्र हो सकता है। यानी हमारे जीन्स की बनावट और माहौल का असर बच्चे की आगे के बर्ताव और पढ़ाई पर पड़ता है। रिसर्च जुड़वां बच्चों पर इसलिए हुआ ताकि उनकी पढ़ाई पर जेनेटिक्स असर को गंभीरता से समझा जा सके। एक जैसे दिखने वाले जुड़वां बच्चों के 100 फ़ीसद जीन्स एक जैसे होते हैं। अगर बच्चों का स्कूल का ग्रेड प्राइमरी से लेकर सेकेंडरी स्कूल तक एक जैसा ही रहता है, तो इसके पीछे बड़ी वजह बच्चों का जीन सीक्वेंस होता है।